By NS Desk | 30-Nov-2020
विश्व की प्राचीन चिकित्सा पद्धतियों में से एक आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्र का गौरवशाली इतिहास रहा है। लगभग पांच हजार वर्षों से चिकित्सा कार्य में सन्नद्ध यह विज्ञान अन्य चिकित्सा शास्त्र को भी आलोकित कर रह रहा है।
आयुर्वेद में शल्य (सर्जरी ), शालाक्य (आइ एंड ईएनटी ), दंत चिकित्सा (डेंटिस्ट्री) का विशिष्ट ज्ञान प्रायोगिक रूप में आचार्य सुश्रुत के कालखंड में लगभग 3500 वर्ष पूर्व अर्थात 4500 बीसी का माना जाता है।
पीड़ित मानवता की सेवा में संपूर्ण न शास्त्र चिकित्सा की मुख्य धारा में से रहा है। समय के क्रम में भौतिक विज्ञान, रसावन विज्ञान, तकनीक औषधि निर्माण विज्ञान तथा अन्य विज्ञान की विधाओं का विकास हुआ, जिसका लाभ तत्कालीन अंग्रेजी शासकों द्वारा पोषित एलोपैथी को मिलता रहा।
फलस्वरूप उसे विकसित एवं पुष्पित पल्लवित होने का पर्याप्त अवसर प्राप्त होता गया। पूरे विश्व में लगभग 50 प्रतिशत लोगों को ही आवश्यक चिकित्सा प्राप्त हो रही है। भारत में एलोपैथी चिकित्सा जो लगभग 250 वर्ष पुरानी है, केवल चालीस प्रतिशत लोगों को ही प्राप्त हो पा रही है। सरकारों के सभी प्रयास के बाद भी सबको चिकित्सा उपलब्ध कराना एक चुनौतीपूर्ण विषय है।
सरकार ने आयुष के लगभग सात लाख प्रशिक्षित चिकित्साकर्मियों के सहयोग से सबको चिकित्सा सुविधा उपलब्ध हो जाए, इस दृष्टिकोण से कार्य करना शुरू किया। आज लगभग 450 आयुष कॉलेजों के द्वार स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर शिक्षण प्रशिक्षण का कार्य चल रहा है। जिनका नियमन संसद द्वारा 4970 में पारित तथा 97 में स्थापित इंडियन मेडिसिन सेंट्रल काउंसिल के द्वारा किया जाता है।
24 अप्रैल 2020 को इसे नेशनल काउंसिल ऑफ इंडियन मेडिसिन के रूप में स्थापित कर भारत सरकार ने इसे नया स्वरूप दिया है। लगभग पचास वर्षों से विधि द्वारा स्थापित इस विधा का शिक्षण प्रशिक्षण मानक के अनुरूप चल रहा है। भारतवर्ष में चार आयुर्वेद विश्वविद्यालय, तीन उच्चस्तरीय आयुर्वेद संस्थान, सेंटल काउंसिल फॉर रिसर्च इन आवुर्वेदिक साइंस तथा अन्य शोध संस्थान इसमें प्रतिभागी हैं। इसी क्रम में विगत पोस्ट ग्रेजुएट रेगुलेशन को पुनर्भाषित किया, जिसमें शल्य एवं शालाक्य शास्त्रों में की जाने वाली सर्जरी को स्पष्ट किया गया। जिसका विरोध इंडियन मेडिकल एसोसिएशन नामक प्राइवेट संस्था ने प्रारंभ किया है, जो निराधार और अविवेकपूर्ण है।
यहां यह भी ज्ञातव्य है कि नियमानुसार प्रत्येक आवुर्वेद कॉलेज मेँ एलोपैथिक विधा के सर्जन, पैथोलॉजिस्ट, रेडिवोलॉजिस्ट, आब्सटेटीशियन _ एवं गाइनकोलॉजिस्ट द्वारा शिक्षण प्रशिक्षण एवं चिकित्सा कार्य में सहयोग किया जाता है। साढ़े पांच वर्षों के बीएएमएस तथा तीन वर्षों के एमडी/एमएस कोर्स में प्रवेश ऑल इंडिया एंट्रेंस टेस्ट द्वार किया जाता है।
पूर्ण प्रशिक्षण के पश्चात ही चिकित्सा कार्य की अनुमति दी जाती है। ऐसी अवस्था में एलोपैथी चिकित्सकों द्वारा आयुर्वेद चिकित्सकों के सर्जरी का विरोध करना इनके भव को दर्शाता है। इनको मालूम है कि बढ़े-बढ़े नसिंग होम में आज भी 80 फीसद से ज्यादा आयुर्वेद चिकित्सक ही सेवा दे रहे हैं।
भारत के लगभग 60 फीसद मरीजों की चिकित्सा व्यवस्था भी आयुष चिकित्सकों द्वारा की जा रही है। इंटरमीडिएट साइंस के पश्चात ही आयुष चिकित्सक में प्रवेश प्राप्त होता है। आयुर्वेद कॉलेज के अस्पतालों में पूर्ण रूप से सर्जरी के ओपीडी एवं आइपीडी चल रहे हैं। जब सरकार सभी चिकित्सा पद्धतियों के इंटीग्रेशन एवं सहयोग से पूरे भारत की स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान चाहती है, कतिपय लोग इससे सहमत नहीं प्रतीत होते। इनका विरोध स्वार्थवश एवं एकाधिकार स्थापित करने का प्रयास है। जबकि सभी जानते हैं कि कोई एक विधा या पैथी सबको स्वास्थ्य उपलब्ध कराने में असमर्थ है।
सरकार के स्वास्थ्य चिंतन में कुछ लोगों द्वारा विरोध समझ से परे है। वर्तमान अध्यक्ष, सीसीआइएम वैद्य जयंत देव पुजारी ने यह स्पष्ट किया है कि हमने अपने चिकित्सकों को कानूनी अनुमति दी है। चूंकि मूर्छन क्रिया के विशेषज्ञ द्वारा यह पूछा जाता है कि क्या आयुर्वेदिक सर्जन को सर्जरी का अधिकार है, इसलिए हमने यह लिखित रूप से स्पष्ट किया है कि आयुर्वेदिक सर्जन क्या कर सकता है।
सुश्रुत ने सैंकड़ों प्रकार के सर्जिकल प्रोसीजर, यंत्र, क्षार कर्म, अग्नि कर्म, राइनोप्लास्टी, नासा-दंत-मुख-कर्णरोगों की सर्जरी आदि के बारे में विस्तार से उल्लेख किया है जो हिप्पोक्रेट्स (460-370 बीसी ) के हजार वर्ष पहले ही पूर्ण विकसित एवं प्रयोग में था। पूरा विश्व सुश्रुत को फादर ऑफ सर्जरी मानता है, जिसका अनुसरण आज भी हो रहा है, फिर इसमें प्रश्न चिहन कहाँ ?
(साभार - डॉ. कमलेश कुमाए द्विवेदी सदस्य, बोर्ड ऑफ गवर्नर, सेंट्रल काउंसिल इंडियन मेडिसिन)