दक्षिण अमेरिका, मध्य अमेरिका और करीबियन के जंगलों में पाये जाने वाले एक वृक्ष की छाल का उपयोग अमरीकी मूल निवासी बुखार उतारने के लिए सदियों से करते आये हैं. वे इससे मलेरिया का इलाज नहीं करते थे क्योंकि मलेरिया की बीमारी नयी दुनिया में नहीं होती थी. एक स्पैनिश सामंत की जागीर के नाम पर उस वृक्ष का नाम चिन्कोना पड़ा. इसी चिन्कोना की छाल से “कुनैन” का विकास हुआ जो डेढ़ सौ साल तक मलेरिया के खिलाफ़ सबसे कारगर दवा रही.
कुनैन से उसी कोटि की एक और दवा विकसित की गयी क्लोरोक्विन. यह मस्तिष्क के मलेरिया में भी कारगर है, जहाँ कुनैन काम नहीं करता. लेकिन इसके पार्श्व प्रभाव कुछ अधिक हैं. दुष्प्रभावों को कम करने के लिए क्लोरोक्विन से एक और दवा विकसित की गयी – हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन.
अभी बहुत जगह यह देखने को मिल रहा है कि हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन की खोज हमारे आचार्य प्रफुल्ल चन्द्र रे ने की थी. यह बात सही नहीं है. हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन का प्रथम संश्लेषण 1946 में हुआ था, यानी आचार्य के देहांत के दो साल बाद.
हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन मलेरिया की दवा है. कुछ अन्य रोगों में भी इसे कारगर पाया गया है किंतु कोविड-19 में इसकी उपयोगिता पर बहुत कम काम हुआ है. चीन और फ्रांस, शायद एकाध और देश कहते हैं कि कोविड में उन्होंने इसका उपयोग किया है. लेकिन बहुत कम रोगियों पर प्रयोग हुआ था और कण्ट्रोल ग्रुप नहीं थे.
फिर भी शायद प्रेसिडेंट ट्रंप की दर्पोक्ति / गीदड़ भभकी से आजिज़ आकर अमरीका की स्वास्थ्य संस्थाओं ने कोविड में इसके प्रयोग की स्वीकृति दे दी. यूँ भी स्वीकृत दवाओं के अस्वीकृत प्रयोग की लंबी परम्परा रही है. इसे “ऑफ लेबल” उपयोग कहते हैं.
अमरीकी अस्पतालों में कोविड को थामने के लिए हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन का उपयोग बढ़ रहा है. पटना के एनएमसीएच में हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन और एज़िथ्रोमाईसिन के उपयोग से अबतक कोविड के सभी रोगियों को बचाया जा सका है. ईश्वर करें यह ड्रीम रन कभी खत्म न हो.
हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन उन लोगों के रक्त की लाल कोशिकाओं को तोड़ने लगता है जिनमे जी6पीडी नामका एंज़ाइम नहीं हो. एक पारसी मित्र ने बताया कि पारसी समुदाय में इस एंज़ाइम की कमी प्रायः देखी जाती है – इतनी कि पारसी जेनरल अस्पताल में, जहाँ उसके दोनों बच्चों के जन्म हुए थे, हरेक नवजात के रक्त की जाँच की जाती है कि उसमे जी6पीडी की कमी तो नहीं है.
यह कमी पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका में बहुत देखी जाती है. भारत के जेनेटिक पूल में इतने आंधी तूफान आये हैं कि यहाँ भी यह कमी पाँच से अधिक प्रतिशत लोगों में मिल जाती है. मेरे बेटे में है. करीब 18 साल पहले, क्लोरोक्विन से उसके रक्त की इतनी लाल कोशिकाएं टूट कर बिलिरुबिन में बदलीं कि उसका सेरम बिलिरुबिन 97 होगया था और उसे तीन हफ़्ते एक बड़े अस्पताल के आईसीयू में रहना पड़ गया था.
तात्पर्य यह कि हाइड्रौक्सीक्लोरोक्विन का प्रयोग खतरे से खाली नहीं है. और इससे घर पर कोविड का इलाज करने का दुष्प्रयास कभी नहीं करना चाहिए. न ही इसे खरीद कर घर पर स्टॉक करने की कोई जरूरत है.
(डॉ. सचिदानंद सिंह के फेसबुक प्रोफाइल्स से साभार)
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